झांसी की रानी का जीवन परिचय – रानी लक्ष्मीबाई की गाथा Naeem Ahmad, February 10, 2018February 25, 2023 लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था परन्तु प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई तथा पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। मोरोपन्त एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। जब मनु का जन्म हुआ था, तो उस समय ज्योतिषियो ने कहा था– कि यह लडकी बडी भाग्यशाली है। आगे चलकर यह जरूर राजरानी होगी। तब कौन कह सकता था कि ज्योतिषियो की यह बात सच साबित होगी। और आगे जाकर यही लडकी झांसी की रानी बनी। Contents1 झांसी की रानी का बचपन1.0.1 रानी लक्ष्मीबाई के बचपन की एक ओर कहानी1.0.2 झांसी की रानी का वैवाहिक जीवन2 1857 की क्रांति में झांसी की रानी की भूमिका2.1 Share this:2.2 Like this:झांसी की रानी का बचपनमनु 3-4 वर्ष की ही थी कि उसकी माता का देहांत हो गया। पत्नी की मृत्यु के बाद मोरोपंत बडे दुखी हुए। अत: उन्हें चिंता सताने लगी की वह तो राजकीय काम काज में व्यस्त रहते है। बच्ची की देखभाल कौन करेगा। काफी सोच विचार के बाद मोरोपंत मनु को अपने साथ लेकर पेशवा बाजीराव के पास बिठूर आ गए।मनु बहुत सुंदर थी। पेशवा बाजीराव उसे बहुत प्यार करते थे। मनु की सुंदरता को देखकर वह वे उसे छबीली कहा करते थे। बाजीराव के दो पुत्र थे नानासाहब और रावसाहब। मनु इन दोनो के साथ खूब खेलती थी। दोनो ने मनु को अपनी बहन बना लिया था। तीनो बच्चो का जीवन बडी हसी खुसी पढाई लिखाई और मस्ती के साथ कट रहा था।धीरे धीरे ये बालक बडे होने लगे। बाजीराव ने अपने पुत्रो को घुडसवारी सिखाने का प्रबंध किया तो मनु कैसे पिछे रहती? वह भी उन दोनो के साथ घुडसवारी करने का अभ्यास करती रही और थोडे ही दिनो में अच्छी घुडसवार बन गई। झांसी की रानी का काल्पनिक चित्रएकबार की बात है नानासाहब और मनु घुडसवारी कर रहे थे। नानासाहब ने मनु को चुनौती देते हुए कहा– अगर हिम्मत है तो निकलो आगे। नानासाहब की यह चुनौती मनु ने स्वीकार कर ली। और दोनो घोडे हवा से बाते करने लगे। फिर क्या था? मनु ने घोडा इतना तेज दौडाया कि केवल धूल ही धूल दिखाई दी। घोडा और सवार नही। फिर भी नानासाहब ने उसका पिछा नही छोडा, आगे निकलने के प्रयत्न में नानासाहब का घोडा ठोकर खा कर धडाम से नीचे जा गिरा। नाना साहब की चीख निकल पडी “मनु मै मरा” मनु ने पिछे मुडकर देखा अरे! ये क्या! उसने तुरंत अपने घोडे को वापस मोड लिया। और नाना साहब को अपने घोडे पर बिठाकर घर की ओर चल दी।रास्ते में चलते हुए नाना साहब ने कहा मनु तुम घोडे को बहुत तेज दौडाती हो। तुमने तो कमाल कर दिया।मनु ने हंसते हुए कहा– तुमने ही तो कहा था हिम्मत है तो निकलो आगे। अब बताओ हिम्मत है या नही?तब नानासाहब ने भी मुस्काराते हुए कहा– हां! तुममे हिम्मत भी और बहादुरी भी!नाना साहब और रावसाहब के साथ मनु हथियार चलाना भी सिखने लगी। थोडे ही दिनो में उसने तलवार चलाना, भाला-बरछा फैकना और बंदूक से निशाना लगाना सीख लिया। मनु तरह तरह के व्यायाम भी करती थी। कुश्ती और मलखंभ तो उसके प्रिय व्यायाम थे।रानी लक्ष्मीबाई के बचपन की एक ओर कहानीएक बार की बात है नानासाहब और राव साहब हाथी पर घूमने जाने लगे। मनु को उन्होने अपने साथ नही लिया। वह उनके साथ जाने की हठ करने लगी। मनु ने अपने पिता से कहा– “काका” में भी हाथी पर बैठूंगी”। परंतु मोरोपंत ने कुछ ध्यान नही दिया। अब मनु बाजीराव के पास गई और रोते रोते बोली– “दादा” मुझे भी हाथी पर बैठा दो”!बाजीराव ने कहा– “नाना” इसे भी लेते जाओ। देखो बेचारी रो रही है। पर नानासाहब ने मनु की ओर देखा भी नही। और साथी चला गया और मनु ने रो रोकर आसमान सिर पर उठा लिया। रोते रोते भी वह यही कहे जा रही थी– मैं भी हाथी पर बैठूंगी, मै भी हाथी पर बैठूंगी।मोरोपंत ने उसे चुप कराने का बहुत प्रयत्न किया। पर जितना वे समझाते उतना ही वह और जोर जोर से रोती। यह देखकर उन्हें गुस्सा आ गया। और मनु को झिडकते हुए बोले– “क्यै बेकार जिद कर रही हो? वे तो महाराजा के बेटे है। तेरे भाग्य में हाथी पर बैठना नही है।अपने पिता जी की यह बात सुनकर मनु एकदम चुप हो गई। उसने अपने पिता की ओर देखा और तपाक से बोली– “मेरे भाग्य में एक नही, दस हाथी है।मोरोपंत ने कहा– ” अच्छा बाबा” होगें दस हाथी, बहुत अच्छी बात हैह अब जा और पढाई कर।पर मनु का गुस्सा उतरा थोडे ही था वह बोली– मैं अभी अपने घोडे पर बैठकर सैर करने जाऊंगी और उस हाथी को खूब तंग करूंगी।मोरोपंत जानते थे कि यह जिद्दी लडकी मानेगी नही यह जरूर हाथी को तंग करेगी। मोरोपंत ने उसे समझाते हुए कहा– ” देख मनु” अगर तेरे घोडे से हाथी लडगया तो तू भले ही बचकर निकल आये। लेकिन वो दोनो बच्चे मारे जाएंगें। तब कही जाकर मनु शांत हुई।समय के साथ साथ अब मनु जवान हो गई थी। झांसी के राजा गंगाधर राव ने उसके साथ विवाह का संदेश भेजा। जिसको मोरोपंत ने स्वीकार कर लिया और मनु का विवाह गंगाधर राव से हो गया। अब मनु झांसी की रानी बन गई थी। और उसी के साथ उसका कहना भी सच हो गया कि— मेरे भाग्य में एक नही दस हाथी है। झांसी की रानी का वैवाहिक जीवन विवाह के बाद झांसी में जाकर मनु अब रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगी। झांसी के महलो में लक्ष्मीबाई को पहले तो ऐसा लगा कि लह बंधन में बंध गई है। परंतु धीरे धीरे उन्होने महलो में ही कुश्ती, मलखंभ आदि व्यायाम करने और हथियार चलाने का अभ्यास करना शुरू कर दिया।उन्होने स्त्रियो से कहा– तुम अपने को कमजोर मत समझो। खूब मेहनत करो और अपने शरीर को मजबूत बनाओ। उनकी इस बात का जादू स्त्रियो पर ऐसा चढा की उनमे से बहुत सी व्यायाम करना और हथियार चलाना सिखने लगी।रानी लक्ष्मीबाई दासियो को अपनी सहेली समझती थी। वे भी उन्हें बहुत चाहती थी। इनमें से मुंदर नाम की दासी तो सदा रानी के साथ रहती थी। लक्ष्मीबाई ने उन सब कै हथियार चलाना, कुश्ती लडना, बंदूक चलाना और घुडसवारी करना सिखा दिया था।रानी लक्ष्मीबाई को। धार्मिक ग्रंथ पढने का बहुत शौक था। वह दान पुण्य में भी हमेशा आगे रहती थी। जो कोई भी सहायता के लिए उनकू पास आता था। उनके दरवाजे से निराश होकर नही लौटता था। उनके इस व्यावहार ने झासी के लोगो के दिलो में रानी के लिए खास जगह बना ली थी।कुछ समय बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। पूरी झांसी में प्रसन्नता की लहर दौड गई। घर घर खुशी के दिये जल गये। राजा गंगाधर राव की प्रसन्नता का तै ठिकाना ना रहा। परंतु यह खुशी अधिक दिन तक न रही। बालक अभी तीन महिने का भी न हुआ था कि चल बसा। पूरि झांसी शोक में डूब गई। रानी के दुख का तो ठिकाना न रहा। महाराज गंगाधर राल इस सदमे को सह ना सके और बिमार पड गए। उन्हे यह चिन्ता सताने लगी कि गद्दी का वारिस न रहने से अंग्रेज उसे हडप जाऐंगे। काफी सोच विचार करने के बाद और रानी की सहमति से महाराज ने अपने वंश के एक बालक को गोद ले लिया। बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। कुछ दिन बाद महाराज गंगाधर राव का भी देहांत हो गया। पूरी झांसी में एक बार भी शोक के बादल छा गए। रानी पुत्र शोक से तो पहले ही दुखी थी। ऊपर से पति की मृत्यु ने रानी को निर्जीव सा ही कर दिया।ऊधर महाराज के मरते ही अंग्रेजो को अवसर मिल गया। उन्होने महाराज द्वारा गोद लिए बालक को उत्तराधिकारी स्वीकार नही किया। और झांसी को अपने राज्य में मिला लिया। रानी ने बहुत विरोध किया पर इस कठिन परिस्थित में वह कुछ न कर सकी। अंग्रेजो ने उन्हें केवल पांच हजार रूपए मासिक पेंशन दे, किला छोडकर शहर के एक मकान में रहने की आज्ञा दी। अब रानी अपना अधिकांश समय पूजा पाठ और अन्य धार्मिक कामो में बिताने लगी। इन कामो से समय निकालकर वह घुडसवारी और हथियार चलाने का अभ्यास भी करती थी। 1857 की क्रांति में झांसी की रानी की भूमिका सन् 1857 में देश भर में जगह जगह अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया। कानपुर में विद्रोहियो का बडा जोर था। नानासाहब उनके नेता थे। कानपुर से विद्रोह की लहरें झांसी तक आ पहुंची।झांसी की छावनी के सिपाहियो ने अपने कुछ अंग्रेज अफसरो को मार डाला। यह देखकर बचे खुचे अंग्रेजो ने अपने बाल बच्चो को रानी के पास भेज दिया। पर जब विद्रोह पूरे शहर में फैल गया तो वे अपने स्त्री और बच्चो को लेकर किले में चले गए। विद्रोही सिपाहियो ने किला घेर लिया। तब अंग्रेजो ने किला छोडने का निश्चय कर लिया। जैसे ही अंग्रेज बाहर आए विद्रोहियो ने उन्हें घेर लिया। और उन पर टूट पडे और मार डाला। महारानी को जब इस बात का पता चला तो उन्हे बडा दुख हुआ।अब रानी ने झांसी का शासन सभांल लिया। लगभग झांसी पर दस महिने तक रानी ने शासन किया। वे नित्य प्रात:काल पांच बजे उठती और नहा धोकर पूजा पाठ करती। फिर वे राजकार्य में लग जाती। उन्होने सदा प्रजा की भलाई का ध्यान रखा।अंग्रेजो के मन में यह बात बैठ गई कि रानी लक्ष्मीबाई विद्रोहियो से मिली हुई है। उसी की आज्ञा से विद्रोहियो ने अंग्रेज अफसरो को मारा। उसका बदला लेने तथा झांसी पर फिर अधिकार करने के उद्देश्य से अंग्रेजो ने अपने एक अनुभवी सेनापति ह्यूरोज को झांसी पर आक्ररमण करने के लिए भेज दिया। ह्यूरोज ने एक विशाल सेना लेकर झांसी पर आक्रमण कर दिया।अंग्रेजो के इस अचानक अक्रमण से झांसी की रानी घबराई नही। दो चार दिनो में ही उन्होने अंग्रेजो का सामना करने का प्रबंध कर लिया। उनकी प्रजा और सेना ने उनका पूरा पूरा साथ दिया।भीषण युद्ध आरंभ हो गया। तोपो की मार से झांसी शहर की दीवार जगह जगह से टूटने लगी। रानी पूरे बारह दिन तक साहस के साथ उनका सामना करती रही। अंत में अंग्रेज सेना झांसी में घुस गई। उसने लूटपाट और मारकाट मचा दी।अब झांसी की रानी ने किला छोडने का निश्चय कर लिया। उन्होने बालक दामोदर राव को पीठ पर बांधा और अपने कुछ सहासी सैनिको के साथ अंग्रेज फौज को चीरती हुई किले से बाहर निकल गई। सैनिक उन्हे आश्चर्य से देखते रह गए। उनमे इतना साहस न था की रानी को पकड सके।झांसी से निकलकर रानी कालपी पहुंच गई। कालपी में रावसाहब और तात्या टोपे एक बडी भारी सेना के साथ डेरा डाले हुए थे। रानी का पिछा करते हुए ह्यूरोज भी कालपी जा पहुचां। घमासान युद्ध हुआ परंतु रानी यहा से भी बच निकली।यह भी पढेरानी दुर्गावती का जीवन परिचयअब रावसाहब और रानी ग्वालियर की ओर चल दिए। तात्या टोपे ने पहले ही ग्वालियर की फौज को अपनी ओर मिला लिया था। इसलिए साधारण सु लडाई के बाद उन्होने ग्वालियर के किले पर अपना अधिकार कर लिया। किंतु यह लोग अभी सांस भी न ले पाए थे कि ह्यूरोज की सैना ने ग्वालियर को भी आ घेरा। दूसरे अंग्रेज सेना अधिकारी भी अपनी सेनाओ के साथ ग्वालियर आ पहुंचे।अब रानी ने समझ लिया कि यह मे रे जीवन की अंतिम लडाई है। पहले दो दिन की लडाई में रानी का घोडा घायल हो चुका था। इसलिए रानी को एकदूसरा घोडा लेना पडा।झांसी की रानी शत्रुओ पर टूट पडी। रावसाहब और तात्या टोपे दूसरे मोर्चो पर लड रहे थे। रानी चाहती थी कि वे उनसे जा मिले और फिर सब मिलकर अंग्रेजो के मोर्चो को उखाड फेंके। इसलिए वे अंग्रेजो की सेना को चीरती हुई आगे बढी। कुछ अंग्रेज सिपाहियो ने उन्हे आ घेरा। घमासान लडाई हुई। रानी के साथी एक एक कर मरने लगे। रानी का घोडा उन्हे एक ओर ले भागा। पीछे पीछे रानी के खून के प्यासे अंग्रेज सैनिक थे। एक नाले पर जाकर रानी का घोडा अड गया। रानी ने बहुत प्रयत्न किया कि घोडा नाला पार कर जाए। परंतु वह ऐसा अडा की आगे बढने का नाम ही न लिया।इतने में एक अंग्रेज सैनिक ने रानी कै आ घेरा। उसने रानी के सिर पर वार किया। इससे रानी के सिर और एक आंख पर गहरी चोट आई। रानी के सेवक ने उस अंग्रेज सेनिक को एक ही वार में चित कर दिया। तब तक रानी के अन्य सिपाही और सेवक भी वहा आ पहुंचे। रानी की यह दशा देखकर वह दुखी हुए। रानी ने उनसे कहा– “देखना शत्रु मेरे शरीर को हाथ न लगा पाएं”। रानी के सेवक उन्हे पास ही स्थित एक साधु की कुटी में ले गए। वहा पहुंचते ही उन्होने दम तोड दिया। इससे पहले कि अंग्रेज सैनिक वहा पहुंचते, साधु ने अपनी कुटी का घास फूस और लकडिया डालकर उनकी चिता में आग लगा दि। इस प्रकार देश की स्वतंत्रा के लिए झांसी की रानी ने 17 जून 1858 को ग्वालियर मध्यप्रदेश में अपने प्राणो की बलि देदी।न तो झांसी की रानी के पास कोई बडी सेना थी। और न ही कोई बहुत बडा राज्य। फिर भी इस स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी ने जो विरता दिखाई, उसकी प्रसंसा उनके शत्रुओ ने भी की है। अपने बलिदान से रानी ने सिद्ध कर दिया कि समय पडने पर भारतीय नारी भी शत्रुओ के दांत खट्टे कर सकती है। ऐसी वीरांगनाओ से देश का मस्तक सदैव ऊंचा रहेगा। झांसी की रानी के जीवन पर आधारित हमारी यह पोस्ट आपको कैसी लगी आप हमे कमेंट करके बता सकते है। और सोशल मिडिया के माध्यम से यह रोचक जानकारी आप अपने दोस्तो के साथ शेयर भी कर सकते है। यदि आप हमारी हर एक नई पोस्ट की सुचना पाना चाहते है तो आप हमारे बलॉग को सब्सक्राइब भी कर सकते है।Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new 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Bahut hi badhiya post aapne jhansi ke rani ke bare me achhi jankari share kiya hain Thanks.Loading...