
संकिसा का प्राचीन इतिहास – संकिसा बौद्ध तीर्थ स्थल
बौद्ध अष्ट महास्थानों में संकिसा महायान शाखा के बौद्धों का प्रधान तीर्थ स्थल है। कहा जाता है कि इसी स्थल पर अपनी स्वर्गीय माता महामाया को उपदेश देकर महात्मा बुद्ध पृथ्वी पर उतरे थे।सरभमिग जातक में यह कथा अत्यंत रोचक ढंग व विस्तारपूर्वक दी हुई है। महात्मा बुद्ध को जन्म देने के सातवें दिन ही महामाया का स्वर्गवास हो गया था। अतः वे अपने ज्ञानी पुत्र के उपदेश से वंचित रह गई थी। स्वर्ग में निवास करते हुए उन्हें अपने पुत्र से उपदेश सुनने की प्रबल इच्छा हुई। अतः महात्मा बुद्ध स्वयं एक दिन स्वर्ग गये और वहां तीन महीने तक अपनी जननी को उपदेश दिया। और उपदेश देकर जब महात्मा बुद्ध तीन महीने बाद स्वर्ग से धरती पर आए वह स्थान पवित्र संकिसा था। सरभमिग जातक के अनुसार यह संकिसा का यह स्थान श्रावस्ती से 90 मील की दूरी पर स्थित था। महात्मा बुद्ध को स्वर्ग से उतरते देखने के लिए महामोग्गलान जो उस समय श्रावस्ती में निवास कर रहे थे। अपने साथियों सहित इस दूरी को पलभर में तय कर संकिसा पहुचे थे। इसके अतिरिक्त अपनी ही भविष्यवाणी के अनुसार महात्मा बुद्ध अगले जीवन काल में सरीबद्ध के पुत्र रूप में मैत्रेय बुद्ध होकर इसी स्थान में जन्म ग्रहण करेंगे। इन सभी महत्वपूर्ण कारणों से इस स्थान को बौद्ध धर्मावलंबियों द्वारा अत्यंत आदर की दृष्टि से देखा जाता है, और पूज्य बौद्ध तीर्थ की भांति पूजा जाता है। अपने इस लेख में हम संकिसा का इतिहास, हिस्ट्री ऑफ संकिसा, संकिसा का प्राचीन इतिहास, संकिसा के दर्शनीय स्थल आदि के बारे में विस्तार से जानेंगे।
संकिसा कहां है, या संकिसा कहा स्थित है?
बौद्ध ग्रंथों में वर्णित या संकिसा का प्राचीन नाम संकास्स आज का आधुनिक Sankisa अथवा बसंतपुर नामक गांव है। जो उत्तर प्रदेश के फरूखाबाद जिले की सदर तहसील में स्थित हैं। यह गांव 41 फुट ऊचें 150 फुट लम्बे और 1000 फुट चौडे टीले पर बसा हुआ है। वर्तमान में यह ओर भी चारो ओर को फैल गया है। शिकोहाबाद और फर्रूखाबाद लाइन पर स्थित पखना तथा मोटा स्टेशनों से यह स्थान लगभग 5 मील की दूरी पर स्थित है। गांव और स्टेशन के बीच से कालिंदी नाम की एक छोटी नदी बहती है। संकिसा पहुंचने के लिए अब तक कोई भी अच्छा मार्ग नही था। केवल कच्ची सडकों और पगडंडियों के द्वारा ही यात्री यहां तक पहुंच सकते थे। किन्तु अब राज्य सरकार की नई योजनाओं के कारण संकिसा की यात्रा आसान हो गई है। अब यह स्थान पक्की सडकों और यातायात सनसाधनों से जुड गया है। और यहां यात्रियों के ठहरने के लिए विश्राम गृहों की उचित व्यवस्था है।

संकिसा का प्राचीन इतिहास, संकिसा मंदिर का इतिहास History of sankisa farrukhabad uttar pardesh
बसंतपुर गांव किसी समय एक सुंदर नगर था। जिसका वैभव इतिहास की गति के साथ धीरे धीरे लुप्त हो गया। सबसे पहले संकिसा का पता जनरल कर्निघम ने 1842 ईसवीं में लगाया था। उस समय उन्होंने यह सिद्ध किया था कि यह वही स्थान है, जिसकी चर्चा ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में कपिला के नाम से की थी। प्राचीन साहित्य मे संकिसा का नाम संकाश्या या संकास्स मिलता है। रामायण मे इस नगरी को इक्षुमति नदी के किनारे बसा हुआ बताया गया है। जो राजा जनक के भाई कुनध्वज की राजधानी थी। उस समय यह नगरी अत्यंत वैभवशाली थी, एवं चारों ओर एक परकोटे से घिरी थी। जनरल कर्निघम को संकिसा की खुदाई में साढे तीन मील के घेरे वाली जो दीवार मिली थी वही संम्भवतः रामायण में वर्णित परकोटा है। और वर्तमान कालिंदी नदी ही प्राचीन इक्षुमति नदी है इस स्थान का उल्लेख पाणिनी ने भी अपने अष्टाध्यायी ग्रंथ में किया है।
जातक कथाओं एवं अन्य बौद्ध ग्रंथों में Sankisa का नाम महात्मा बुद्ध के यहाँ दिव्य कर्म सम्पन्न करने के कारण तथा मैत्रेय बुद्ध की भांति जन्म लेने के कारण पवित्र स्थान के रूप में लिखा गया है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार जिन सीढिय़ों से महात्मा बुद्ध, ब्रह्मा और इंद्र के साथ स्वर्ग से उतरे थे। वे भूमि में समा गई थी। केवल 6 सीढियां ही बची रह गई थी। कहा जाता हैं कि सम्राट अशोक ने भूमि खोदकर उन सीढिय़ों को निकालने का प्रयास किया था। किंतु अपने इस प्रयास में वह असफल रहा। परवर्ती काल में बौद्ध धर्म को श्रद्धा की दृष्टि से देखने वाले अनेक राजाओं ने इन लुप्त सीढियों के स्थान पर नये सोपानों को बनवाने की चेष्टा की। ये सोपान पत्थर ओर ईटों से बनाये गये थे। जिनमें बहुमूल्य अलंकरणों का भी प्रयोग किया गया था। इन सोपानों की ऊंचाई लगभग 70 फुट थी। सोपानों के ऊपर एक विहार भी बनवाया गया था। जिसमें महात्मा बुद्ध की मूर्ति ब्रह्मा और इंद्र की मूर्तियों के साथ स्थापित की गई थी। मूर्तियां ऐसी मुद्राओं में थी जिनमें ऐसा ज्ञात होता था कि ये लोग सोपानों से भूमि पर ऊतर रहे है।

चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग के कथनानुसार इन तीन सोपानों के ऊपर अशोक सम्राट ने एक मंदिर की रचना करवाई थी। जिसके मध्य भाग में महात्मा बुद्ध की 60 फुट ऊंची एक विशाल प्रतिमा स्थापित थी। सोपान के निकट ही उन्होंने एक 70 फुट ऊंचे शिला स्तंभ की रचना करवाई थी। इस स्तंभ के ऊपर सिंह की आकृति थी। इस सिंह के विषय में भी एक चमत्कार पूर्ण कथा कही जाती है। जिसका उल्लेख फाह्यान ने किया है। एक बार श्रमणों और ब्राह्मणों में इस विषय पर विवाद छिड़ा की वास्तव में यह स्थान बौद्धों के रहने योग्य है, अथवा ब्राह्मणों के। श्रमण यह सिद्ध कर रहे थे कि यह स्थान श्रमणों के योग्य है। तब ब्राह्मणों ने यह कहा कि अगर ऐसा है तो किसी चमत्कार से इसको प्रमाणित करो। उनके इतना कहते ही स्तंभ से प्रस्तर सिंह ने गर्जन किया। इस प्रकार यह विवाद शांत हुआ। इस कथा से यह आभास भी मिलता है कि Sankisa के विषय में यह विवाद प्राचीन काल में उठ खडा था कि यह स्थान ब्राह्मणों का है अथवा श्रमणों का है। इस स्थान की खुदाई में जो भी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। उनमें अधिकांश बौद्ध धर्म से संबंधित नही है। इसलिए यह मानना सहज है कि बौद्ध धर्म अनुयायी इस स्थान पर अपना आधिपत्य बहुत दिनों तक नही रख सके और ब्राह्मणों ने भी इस पर अपना अधिकार बहुत प्राचीन काल में ही जमा लिया था। इसकी सूचना चीनी यात्रियों के विवरण से भी प्राप्त होती है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि विहार के आसपास अनेक सहस्त्र ब्राह्मण यहां पर निवास करते थे।
Sankisa के गांव में आज भी इस प्रकार की किवदंती प्रचलित है कि लगभग दो हजार साल पहले यह स्थान जनशून्य कर दिया गया था। और लगभग हजार साल पहले किसी कायस्थ ने इसको ब्राह्मणों को दान में दे दिया था। इसलिए अन्य बौद्ध तीर्थों के समान इस स्थान का भी कोई श्रृंखला बद्ध इतिहास प्राप्त नही होता। समय समय पर शासक लोग अपनी इच्छानुसार यहां विहार, स्तूप , मंदिर आदि बनवाते रहे। किंतु मध्य युग में आकर यह भी बंद हो गया। जिसके फलस्वरूप यह पवित्र स्थान विस्तृत होने लगा। और बौद्ध धर्म के ह्रास के साथ इसकी महत्ता लुप्त हो गई। बौद्ध धर्म विशेष रूप से भिक्षुओं से संचालित होता था उसका नेतृत्व गृहस्थ लोग नहीं कर सकते थे। इसलिए जब इस स्थान की धार्मिक इमारतें नष्ट हो गई और भिक्षु लोग नहीं रहे तो किसी ने उनका जीर्णोद्धार कराने की चेष्टा नहीं की। इमारते भग्न होकर पहले खंडहर हुई फिर समय बितने पर अपने ही मलवे में दबकर टीले के रूप में हो गई। फिर भी ऐतिहासिक लेखों, मुहरों, मूर्तियों और सिक्कों आदि के द्वारा इस स्थान के प्राचीन स्मारकों के विषय में जितना ज्ञात हुआ है। वह इसकी महत्ता को सिद्ध करने के लिए काफी है।

संकिसा का पता कैसे चला और संकिसा का पता किसने लगाया तथा संकिसा की खुदाई में प्राप्त वस्तुएं
यह हम पहले ही बता चुके है कि वर्तमान संकिसा का पता सबसे पहले जनरल कर्निघम ने 1842 ईसवीं मे लगाया था। परंतु उस समय वे इस स्थान की खुदाई न करा सके। इस स्थान की विधिवत खुदाई का कार्य उन्होंने 1862 ईसवीं में आरम्भ किया। इस कार्य में उन्होंने अशोक द्वारा निर्मित स्तूपों एवं विहारों का तथा मुख्य नगर के अति प्राचीन परकोटे एवं प्रवेशद्वार का पता लगाया। उन्हें इस क्षेत्र में शृंग काल से लेकर नवीं शताब्दी तक के सिक्के भी प्राप्त हुए। जिससे यहां के इतिहास का पता चलता है। सिक्कों के अतिरिक्त उनको पत्थर की एक मुहर दो चित्रिक शिलापट्ट, एक मृण्मूर्ति, एक नक्काशीदार काला पत्थर और कुछ अलंकार प्राप्त हुए थे। पत्थर की मुहर पर त्रिरत्न और स्वातिक चिन्ह बने हुए है। और उस पर उत्तरसेनम अर्थात उत्तरसेन की मुहर लिखा हुआ है। यहां से प्राप्त शिलापट्टो पर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित प्रमुख दृश्य उत्कीर्ण है। इनमें से एक मे महात्मा बुद्ध को स्वर्ग से उतरते हुए दिखाया गया है। यह शिलापट कुछ घिस भी गया है जिसके कारण लगभग आधा दृश्य मिट गया है। हालांकि जो शेष सही हिस्सा है उसमें ऊपर की ओर एक ऊची इमारत है। जिस पर पहुंचने के लिए नीचे से एक लम्बी सीढी लगी हुई है। सीढी के ठीक ऊपर एक गुम्बद बना है। जिससे होकर मुख्य इमारत में प्रवेश किया जा सकता है। इस चित्र मे यह इमारत तीन खंडों मे अंकित की गई थी। और इसका ऊपरी भाग अब खंडित हो गया है। इमारत के मध्य भाग में उपदेश देने की मुद्रा मे महात्मा बुद्ध बैठे हैं। उनके दायी ओर एक आकृति है जो भक्ति भाव से आसीन है। दृश्य के वाम भाग में एक वृक्ष है। जिस पर एक बडा सा मोर बैठा हुआ है। सीढियों के मूल भाग में एक नारी की आकृति है जो अपने बायें हाथ को ऊपर की ओर उठाये है। और दायें हाथ में एक भिक्षा पात्र लिए हुए हैं।यह उत्पलवर्णा नाम की भिक्षुणी है। जो भगवान का सत्कार करने आयी थी। मूर्ति के खंडित होने पर भी यह निश्चित रूप से भगवान बुद्ध के स्वर्ग से उतरने का ही दृश्य है। जो Sankisa में ही हुआ था।
अन्य वस्तुओं में एक गोल पत्थर है। जिस पर कुछ आकृतियां और अलंकरण उत्कीर्ण किये गए है। यह पत्थर सुंदर और बहुमूल्य है। इसके चारो ओर बहारी हाशिये पर घनी नक्काशी की गई है। अंदर के वृत्त को 12 भागों मे विभाजित किया गया है। जिसमें से तीन के अंदर खडे हुए पुरुषों की आकृतियां अन्य तीन में वृक्ष तथा शेष छः में बौद्ध धर्म के प्रतीक अंकित है। ठीक इसी प्रकार का एक शिलाखंड श्री कर्निघम को तक्षशिला में भी प्राप्त हुआ था। अभी तक इन फलकों पर बने चित्रों का वास्तविक अर्थ ज्ञात नहीं हो सका है। इस स्थान से प्राप्त दम्पत्ति की मृणमूर्तिया असाधारण रूप से सुंदर और कला पूर्ण है। उसके कटी प्रदेश मे मोतियों की माला है। जो उसके सौंदर्य को दौगुना करती है। उसके दायें हाथ सनाल कमल है। एवं बायां हाथ कटि प्रदेश पर स्थित हैं। ये मूर्तियां ईसवीं पूर्व पहली सदी की है। इसके अतिरिक्त काले पत्थर के एक टुकडे पर महात्मा बुद्ध के निर्वाण का दृश्य अंकित किया गया है। वे दायीं करवट लेटे है। और उनका दायां हाथ सिर के नीचे है। उनके चारों ओर भिक्षु खडे है। शिलापट के दूसरी ओर एक बडे हाथी का अगला पैर बना हुआ है। अपने मूल रूप में हाथी की यह आकृति छः इंच ऊंची रही होगी। हाथी के इस पैर के सामने एक पुरूष है जो धोती पहने हुए है। और जिसके हाथ में ढाल और खडग है। उसके सिर पर कोई वस्त्र नहीं है। श्री कर्निघम के अनुसार यह दृश्य महात्मा बुद्ध के अस्थयशेषो को हाथी के मस्तक पर रख कर ले चलने वाले जलूस का एक अंश मात्र है। इन वस्तुओं के अतिरिक्त कर्निघम को सुनारों के काम में आने वाले कुछ पत्थर के बने हुए अत्यंत प्राचीन सांचे भी यहाँ से प्राप्त हुए है। इन सांचों मे से एक पर कुछ लिखावट प्रतीत होती है। जो अस्पष्ट है। सांचों की शैली से ज्ञात होता है कि विदेशों से कुछ स्वर्णकार आकर इस स्थान पर बसे थे।
श्री कर्निघम के बाद Sankisa के अवशेषों की खुदाई श्री ग्राउज ने आरम्भ की जिसका कोई विवरण प्राप्त नही है। इसके बाद सन् 1914 ईसवीं में श्री हीरानंद शास्त्री ने इस स्थान पर खोज का काम आरंभ किया उनके प्रयास से अनेक इमारतें, सिक्के, मिट्टी की मुहरें आदि प्राप्त हुई। जिनसे संकिसा के इतिहास पर विशेष प्रकाश पड़ा। प्राप्त सिक्कों में से कुछ सिक्के ईसा से पूर्व दूसरी शताब्दी के है। जिन पर शिव तथा नंदी की आकृतियां अंकित है। इस खुदाई में श्री हीराचंद शास्त्री को लगभग 115 मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुई। जिनमें से एक मुहर बौद्ध धर्म से संबंधित है। यह मुहर 40 फुट नीचे खुदाई करने पर मिली थी, जहाँ पर राख और कोयलों के ढेर में वह पडी हुई थी। इससे यह प्रमाणित होता है कि किसी समय Sankisa के विहारों को जलाया गया था। प्राप्त मुहरे विविध काल की है। और बौद्ध, शैव, तथा वैष्णव धर्म से संबंध रखती है। इनमे कुछ पर भद्राक्ष, कुछ पर रम्याक्ष और कुछ पर श्वेत भद्र लेख अंकित है। भद्राक्ष और रम्याक्ष से अंकित मुहरों पर शैव प्रतीक यथा शिव, नंदी, त्रिशूल अंकित है। एवं श्वेत भद्र की मुहरों पर गुरूड और सर्प की आकृतियां है। इस प्रमाण के आधार पर यह स्पष्ट है कि Sankisa का पुण्य तीर्थ केवल बौद्धों के लिए ही आदरणीय नहीं था बल्कि शैवों और वैष्णवों का भी एक मुख्य स्थान था।
डाक्टर शास्त्री ने जिस स्थान पर मुख्य रूप से खुदाई कराई वह विसारी देवी के मंदिर और ढूह के बीच का भाग था। जहाँ किसी विहार के कई कमरो की रूपरेखा स्पष्ट की जा सकी थी। यहां से प्राप्त ईटों से यह ज्ञात होता है कि यह विहार मौर्यकाल का है। इस इमारत के उत्तर कोने पर और बीच में दो सीढियां भी मिली है। यदि दुसरे कोने पर भी सीढियां मिल जाएं तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह वही इमारत है जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने किया था। विसारी देवी के आधुनिक मंदिर के ढूह के नीचे जो इमारत दबी पड़ी है। वह भी विहार सी लगती है। इसकी खुदाई करने पर कोने से इमारतों के कुछ भाग मिले है। जो एक के ऊपर एक बने है। इन इमारतों में धातुओं की अनेक वस्तुएं और मनके मिले है। इसके अतिरिक्त किसी प्राचीन गोल इमारत के खंडहर के ऊपर एक वर्गाकार इमारत के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जिसका पूरा वर्ग 120 फुट लम्बा चौडा है। सम्भवतः यह इमारत कुषाण काल में बनी थी जैसा कि इसमे उपयुक्त ईटों से ज्ञात होता है।

Sankisa गाँव के दक्षिण पश्चिम कोने पर खुदाई करने से एक और मौर्यकालीन इमारत के अवशेष प्राप्त हुए थे। इस इमारत के कमरों मे से कुछ बर्तन और बहुत सी दवातें प्राप्त हुई थी। जिनसे ऐसा अनुमान होता है कि इस स्थान पर कोई पाठशाला या छात्रावास था।
उपरोक्त इमारतों के आधार पर प्राचीन संकिसा के वैभव की कल्पना सहज ही की जा सकती है। जब वह अनेक स्तूपों, विहारों और मंदिरों से सुशोभित था। पाठशालाएं और विद्वानों के निवास स्थान के अतिरिक्त दूर दूर से आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिए भी समुचित प्रबंध यहा था। मौर्य काल से लेकर गुप्त काल तक यह स्थान निश्चित रूप से उन्नत अवस्था में था। बाद में हुणों के आक्रमण के कारण बौद्ध धर्म का पतन होता गया तयों तयों संकिसा का भी पतन होता गया। यहा तक कि मुस्लिम काल में आक्रमणकारियों की बर्बरता से जो कुछ बचा था वह भी सदा के लिए नष्ट हो गया।
Sankisa के पूर्व की ओर लगभग छः मील की दूरी पर एक और टीला मिला है। जिसकी खुदाई करने पर एक विशाल विहार के अवशेष, मुद्राएं, मूर्तियां और अन्य साम्रगी प्राप्त हुई। प्राचीन काल में यह विशाल विहार संकिसा महातीर्थ का अवश्य ही एक महत्वपूर्ण अंग रहा होगा। इसके उत्तर पूर्व कोने पर महात्मा बुद्ध की एक विशाल मूर्ति पाई गई थी। साथ ही मिट्टी की बनी अनेक मुहरें भी मिली थी। जिनमें महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचारित बौद्ध धर्म का मूल मंत्र “ये धर्मा हेतू” लिखा हुआ है। यही से एक शिलापट भी प्राप्त हुआ था। जिस पर बोधिसत्व की दो प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। यह विहार पखना विहार के नाम से प्रसिद्ध था। इस स्थान के उत्तर में लगभग चार फर्लांग की दूरी पर एक बहुत बडा ताल है। जिसे लोग महीताल कहते है। इसके पश्चिमी तट पर कुछ मंदिरों के भग्नावशेष मिले है। जिनमें से ब्राह्मण धर्म संबंधी अनेक महत्वपूर्ण मूर्तियां प्राप्त हुई है। ह्वेनसांग ने Sankisa के पास जिस विशाल विहार को देखा था। यह संभवतः वही विहार है।
Sankisa और पखना विहारों की खुदाई अभी पूरी नहीं हुई है। अधिकांश भाग ढूहों और खेतो के नीचे अज्ञात पड़ा है। फिर भी जितनी सामग्री अभी तक यहां से प्राप्त हुई है। उससे Sankisa के वैभव का बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होता हैं। संकिसा के दर्शनीय स्थलों में उपरोक्त भग्नावशेषों को छोडकर कुछ ही ही देखने योग्य स्थल है। जो यहाँ के गौरवपूर्ण समय पर प्रकाश डालते है। ऐसे ही संकिसा के पर्यटन स्थलों का विवरण नीचे दिया गया है।
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विसारी देवी का मंदिर
Sankisa के क्षेत्र में प्रवेश करते ही टीले पर दक्षिण मे ईटों का एक ऊंचा ढूह है। जिस पर विसारी देवी का आधुनिक मंदिर बना है। इस देवी की पूजा ग्रामवासी शक्ति के रूप में करते है।
अशोक स्तंभ का शीर्ष भाग
विसारी देवी मंदिर वाले टीले के उत्तर में 600 फुट की दूरी पर एक प्राचीन स्तंभ का शीर्ष भाग पाया गया था। इस पर हाथी की मूर्ति बनी है। जिसकी सूंड और पूंछ अब टूट गई है। भूरे रंग के पत्थर की बनी यह मूर्ति अपने चमकदार पालिश तथा उत्कृष्ट रचना के कारण अवश्य ही किसी अशोक स्तंभ को सुशोभित करती होगी जो यहां स्थापित किया गया था। चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग दोनों ने ही Sankisa में अशोक स्तंभ होने का उल्लेख किया है। किन्तु उसके शीर्ष भाग पर हाथी की जगह सिंह लिखा है। जो शायद भ्रमवश होगा। यह शीर्ष भाग अब एक लोहे के बाडे में सुरक्षित है।

स्वर्ग से उतरने का स्थान, प्रमुख विहार एवं स्तूप
विसारी देवी मंदिर के दक्षिण मे लगभग 200 फुट की दूरी पर एक टीला है। जो संभवतः किसी स्तूप का खंडहर मालूम पडता है। इसी प्रकार मंदिर के पूर्व मे लगभग 600 फुट की दूरी पर भी नीवी का कोट नाम का एक विशाल टीला है। जो परिमाप में 600-500 फुट का है। और जो वास्तव मे कभी एक विशाल विहार रहा होगा। इस विशाल ढूह के दक्षिण पूर्व और उत्तर के कोनों में भी स्तूपों के कई खंडहर है। और इसी प्रकार का एक ढूह थोडा दूर चलकर उत्तर दिशा में भी मिलता है। इन सब ढूहों को मिलाकर पूरा क्षेत्र लगभग 3000 फुट लम्बा और 2000 फुट चौडा है और 2 मील के घेरे में फैला हुआ है। संभवतः यह समस्त क्षेत्र मुख्य नगर का मध्य भाग रहा होगा। नगर के चारों ओर मिट्टी की दीवार थी जिसका अधिकांश भाग आज भी देखा जा सकता है।कही कही पर नगर मे प्रवेश करने के द्वारों के चिन्ह भी मिलते है। इस क्षेत्र मे अनगिनत छोटे बडे स्तूप है। जिनमें सात स्तूप महत्व के है। पहला जहाँ महात्मा बुद्ध स्वर्ग से भूमि पर उतरे थे, दूसरा जहाँ पूर्व समय मे चार बोधिसत्वों ने बैठकर योग साधना की थी, तीसरा जहाँ महात्मा बुद्ध ने स्नान किया था, चौथा एवं पांचवा जहां इन्द्र और ब्रह्मा महात्मा बुद्ध के साथ स्वर्ग से उतरे थे, छठा जहाँ भिक्षुणी उत्पलवर्णा ने सर्वप्रथम स्वर्ग से उतरते हुए महात्मा बुद्ध का सत्कार किया था, एवं सातवां जहाँ महात्मा बुद्ध ने अपने केश एवं नख कटवाये थे।
नाग का तालाब
यह तालाब विशाल स्तूप के दक्षिण पश्चिम में स्थित हैं। जिसमे फाह्यान के अनुसार एक स्वेत फन वाला नाग रहता था। यह नाग अपनी आलौकिक शक्ति के कारण भूमि को उर्वरता प्रदान करता था तथा Sankisa के निवासियों की रक्षा करता था। इस तालाब के भग्नावशेष कान्देय ताल के नाम से पुकारे जाते है। और यहां प्रति वर्ष वैशाख माह में मेला लगता है।
महादेव का मंदिर
विसारी देवी मंदिर के उत्तर पूर्व में आधे मील की दूरी पर एक ढूह है। जिस पर महादेव जी का नया मंदिर बना हुआ है। मंदिर की इमारत मे कुछ प्राचीन स्तंभों का प्रयोग किया गया है। जो मथूरा के लाल रेतीले पत्थर के बने हुए हैं। यहां खुदाई करने पर मध्यकालीन पौराणिक धर्म की वस्तुएं भी प्राप्त हुई थी
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