नाकोड़ा जी तीर्थ जोधपुर से बाड़मेर जाने वाले रेल मार्ग के बलोतरा जंक्शन से कोई 10 किलोमीटर पश्चिम में लगभग 1500 फीट ऊंची पहाड़ियों से घिरी हुईं पवित्र घाटी के नाके पर स्थित है। इसके लगभग 7-8 किलोमीटर उत्तर में वैष्णवों का सुप्रसिद्ध खेड़ मंदिर, तथा एक किलोमीटर उत्तर पश्चिम में राजपूतों और भीलों का बन्तीवाला गांव मेवानगर और चारो तरफ ऐतिहासिक बीरमपुर खंडहर विद्यमान है।
नाकोड़ा जी तीर्थ का इतिहास
परम्परागत ख्याति और रूढिवादी दंतकथाओं के अनुसार नाकोड़ा का मुख्य स्थल भगवान पार्श्वनाथ जी का मंदिर है। जो लगभग 2400 वर्ष पूर्व बना था। और यह भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। तथा इसकी पुष्टि करने के लिए नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ नामक पुस्तिका के विद्वान लेखक श्री सुरजमल संघवी ने अजमेर के पास बडली नामक गांव के पास से प्राप्त 5 वी शताब्दी के एक शिलालेख का प्रमाण के रूप में उल्लेख किया है। जन श्रुतियों के अनुसार ईसा पूर्व तीसरी सदी मे नाकोर लैन और बीरमदत्त नामक दो राजपूत भाईयों ने नाकोर नगर (स्थान अनिश्चित) और बीरमपुर नामक नगर की स्थापना अपने अपने नामों से की थी। और जैन धर्म से प्रभावित होने के कारण उन नगरों के मध्य में में सुंदर जिनालयो का निर्माण कराया था। नाकोर नगर के जिनालयों मे उस समय मूल नायक के रूप में भगवान श्री सुविधिनाथ जी की मूर्ति की स्थापना हुई थी।
नाकोड़ा जी तीर्थ के सुंदर दृश्य
तत्पश्चात ईसा पूर्व पहली शताब्दी के प्रारंभ मे सम्राट के पौत्र सम्प्रति ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर आचार्य श्री सुहास्तिसूरीजी महाराज की देख रेख मे रखा। ईसा की प्रथम शताब्दी में उज्जैन के महान हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य ने विद्याधर गच्छ के आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर की निष्ठा मे भी इस तीर्थ का जिर्णोद्धार करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का जिर्णोद्धार करवाने वालों में आचार्य श्रीमान तुंगसूरी का नाम भी आता है। सन् 396 ईसवीं के बाद यहां मूल नायक सुविधिनाथ जी के स्थान पर भगवान महावीर स्वामी की स्थापना की गई थी। सातवीं और आठवीं शताब्दियां जैन धर्म का स्वर्ण युग मानी जाती है। अतः स्वभाविक ही था कि इस समय में अनेकों बार इस तीर्थ का पुनः निर्माण और विकास हुआ।
ईसा की 13 वी सदी के प्रारंभ में जब यवन के हमलावर आलमशाह ने यहां आक्रमण किया तो बहुमूल्य प्रतिमाओं को बचाने के लिए उन्हें कालीदह नामक गुफा में छुपाया गया। उस समय यहां मूल नायक के रूप में सुविधिनाथ और महावीर स्वामी का नहीं बल्कि भगवान पार्श्वनाथ जी का उल्लेख मिलता है। इस आक्रमण के फलस्वरूप नाकोर नगर और बीरमपुर नगर दोनों पूरी तरह तबाह कर दिए गए थे। फलतः इसके बाद के 200 वर्षों तक नाकोड़ा तीर्थ की गतिविधियों का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इस समय इस प्रदेश की राजधानी खेड़ पर गोयल वंशीय राजपूतों का शासन था। जिनकी अंतिम और बदनाम शासक पोपांबाई हुई, जिसकी कहावतें विश्व विख्यात हैं। कहते है कि इस पोपांबाई की पोल देखकर तेरहवीं सदी मे महान पराक्रमी राठौड़ों ने खेड़ पर चढाई कर तमाम गोयलो को मौत के घाट उतार कर यहा पर अधिकार जमा लिया और उनके रावल मल्लीनाथ जी जैसे कुशल शासकों के कारण इस क्षेत्र की पुनः उन्नति होने लगी। सुप्रसिद्ध वुर काव्य वीरनारायण के अनुसार रावल मल्लीनाथ जी के चार भाई थे, जिनमें से अत्यंत शूरवीर और पराक्रमी आदि पुरूष बीरमदेव ने अपने नाम पर बीरमपुर नामक नगर बसाया। जो शीघ्र ही उन्नति के शिखर पर पहुंच गया।
इस समय यहां जैनों की अच्छी बस्ती बस चुकी थी और सब सुखसम्मपन्न थे। अतः श्रृद्धालु भक्तों ने पुनः अपने प्राचीन खंडहर प्रायः जिनालयों के स्थान पर वर्तमान पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। और कालीदह मे छुपी पड़ी 120 प्रतिमाओं को निकाल कर लाए तथा बड़ी धूम धाम से भगवान पार्श्वनाथ की 23 इंच ऊंची श्यामवर्गीय प्रतिमा को मूल नायक के रूप प्रतिष्ठित किया गया।
जैन मतानुसार भगवान तीर्थंकर बीतराग होते है। अतः वे किसी की पूजा आराधना से प्रसन्न और आराधना से रूष्ट नहीं होते, न ही वे किसी को वरदान या श्राप देते है। इसलिए सकाम भक्तों की मनोकामनाओं की पूर्ति और उन्हें बीतराग की आराधना का फल प्रदान करने के लिए प्रत्येक जिनालय में एक अधिष्ठायक देव की स्थापना की जाती है। यह देव मंदिर की रक्षा भी करते है। नाकोड़ा जी पार्श्वनाथ मंदिर के अधिष्ठायक देव है, श्री नाकोड़ा भैरव जी बहुत प्रसिद्ध और जागृत देव माने जाते है। भारत भर में फैले इनके श्रृदालु भक्त इनकी मिन्नत करके मनोवांछित फल प्राप्त करते है। बहुत से भक्त तो इन्हें इष्टदेव मानकर अपनी दुकान में इन के नाम की हिस्सेदारी रख कर अपनी कमाई की निश्चित आय नाकोड़ा जी भैरव के लिए सुरक्षित रखते है। और वर्ष के अंत में उसे भैरव जी की सेवा में जमा कर देते है। जिससे भैरव भोजन शाला आदि का प्रबंध और अनेकों शुभ कार्य चलते रहते है। वास्तव में यदि नाकोड़ा तीर्थ के मुख्य आकर्षण श्री भैरव को ही मान लिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
नाकोड़ा जी तीर्थ के सुंदर दृश्य
पार्श्वनाथ मंदिर के सामने कुछ दाहिनी और गगन चुंबी शिखर और संगमरमर की सीढियों वाला भगवान श्री शान्तिनाथ जी का मंदिर है। जिसकी सुंदरता और कारीगरी को देखकर आबू के दिलवाडा मंदिरों की याद ताजा हो जाती है। इस मंदिर के चारों ओर चार देहरिया बनी हुई है। जिसमें सर्व श्री भगवान पार्श्वनाथ जी, ऋषभदेव जी, नेमीनाथ जी, और महावीर स्वामी की प्रतिमाएं है। यद्यपि यह मंदिर काफी पुराना है। जिसका निर्माण सुखमालासी के सेठ मालाशाह ने सन् 1518 में अपनी वृद्ध माता के कहने से करवाया था। तथापि चारों देहरियो की प्रतिष्ठा वर्तमान तपागच्छ के आचार्य श्री हेमांचल सूरिश्वर जी महाराज ने सन 1960 में करवाई थी।
तीसरा बड़ा मंदिर भगवान ऋषभदेव का है। जिसमें उनकी तीन फुट ऊंची श्वेत वर्ण और अत्यंत आकर्षक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। चौथा मंदिर ऋषभदेव मंदिर के सामने ही गणाधर श्री पुंडलिक स्वामी का है। जिसका निर्माण बलाणा निवासी सेठ भीकमचंद कानमलाणी की सहायता से हुआ था। इसके दाहिनी ओर श्री चौमुखाजी का छोटा सा मंदिर है। उपरोक्त जिनालयों के अलावा मुख्य पार्शवनाथ मंदिर से जुडा हुआ 16वी शताब्दी का बना हुआ श्री चारभुजा जी का वैष्णव मंदिर और पास ही 17वी शताब्दी का शिव मंदिर है। जो राठौडों की सब धर्मों पर समान भावना का प्रतीक है। इन के अलावा सातवीं सदी से लेकर आज तक की बनी हुई अनेकों प्रतिमाएं है। जो मंदिरों के अहातो और भूमि गृहों में सुरक्षित है।
नाकोड़ा जी का मेला
यूं तो यहां सालभर हजारों यात्रियों के आने जाने से मेला सा लगा रहता है। और हर पूर्णमासी को भी विशेष आयोजन रहता है। किन्तु इसके अलावा प्रति वर्ष मार्गशीर्ष वदि 10 को भगवान पार्श्वनाथ का जन्म कल्याण दिवस मनाया जाता है। इस दिन प्रति वर्ष भारत के कोने कोने से यहां यात्रियों का हुजूम आता है। इस दिन भगवान पार्श्वनाथ का जुलूस गाजेबाजे के साथ निकाला जाता है। जिसको नवकारसी निकालना कहते है। इसी दिन लाखों रूपये खर्च कर श्रृदालु सेठ नवकारसी भोज भी देते है। जिसमें खाने के लिए किसी को मनाही नहीं रहती। नाकोड़ा जी मेले मे आए हुए रंगबिरंगी पोषाक पहने स्त्री पुरूष व बच्चे, रंगबिरंगे सामयाने, रंगबिरंगी सजी दुकाने, कार मोटर घोडा गाडी आदि की भीड भाड को देखकर नाकोड़ा धाम की किसी भी लोक तीर्थ से तुलना की जा सकती है।
जो नर नित उठ तुमको ध्यावे, भूत पास आने नहीं पावे ॥
डाकण छूमंतर हो जावे, दुष्ट देव आडे नहीं आवे ॥
मारवाड की दिव्य मणि हैं, हम सब के तो आप धणी हैं ॥
कल्पतरु है परतिख भैरव, इच्छित देता सबको भैरव ॥
आधि व्याधि सब दोष मिटावे, सुमिरत भैरव शान्ति पावे ॥
बाहर परदेशे जावे नर, नाम मंत्र भैरव का लेकर ॥
चोघडिया दूषण मिट जावे, काल राहु सब नाठा जावे ॥
परदेशा में नाम कमावे, धन बोरा में भरकर लावे ॥
तन में साता मन में साता, जो भैरव को नित्य मनाता ॥
मोटा डूंगर रा रहवासी, अर्ज सुणन्ता दौड्या आसी ॥
जो नर भक्ति से गुण गासी, पावें नव रत्नों की राशि ॥
श्रद्धा से जो शीष झुकावे, भैरव अमृत रस बरसावे ॥
मिल जुल सब नर फेरे माला, दौड्या आवे बादल – काला ॥
वर्षा री झडिया बरसावे, धरती माँ री प्यास बुझावे ॥
अन्न – संपदा भर भर पावे, चारों ओर सुकाल बनावे ॥
भैरव है सच्चा रखवाला, दुश्मन मित्र बनाने वाला ॥
देश – देश में भैरव गाजे, खूटँ – खूटँ में डंका बाजे ॥
हो नहीं अपना जिनके कोई, भैरव सहायक उनके होई ॥
नाभि केन्द्र से तुम्हें बुलावे, भैरव झट – पट दौडे आवे ॥
भूख्या नर की भूख मिटावे, प्यासे नर को नीर पिलावे ॥
इधर – उधर अब नहीं भटकना, भैरव के नित पाँव पकडना ॥
इच्छित संपदा आप मिलेगी, सुख की कलियाँ नित्य खिलेंगी ॥
भैरव गण खरतर के देवा, सेवा से पाते नर मेवा ॥
कीर्तिरत्न की आज्ञा पाते, हुक्म – हाजिरी सदा बजाते ॥
ऊँ ह्रीं भैरव बं बं भैरव, कष्ट निवारक भोला भैरव ॥
नैन मूँद धुन रात लगावे, सपने में वो दर्शन पावे ॥
प्रश्नों के उत्तर झट मिलते, रस्ते के संकट सब मिटते ॥
नाकोडा भैरव नित ध्यावो, संकट मेटो मंगल पावो ॥
भैरव जपन्ता मालम – माला, बुझ जाती दुःखों की ज्वाला ॥
नित उठे जो चालीसा गावे, धन सुत से घर स्वर्ग बनावे ॥
॥ दोहा ॥
भैरु चालीसा पढे, मन में श्रद्धा धार ।
कष्ट कटे महिमा बढे, संपदा होत अपार ॥
जिन कान्ति गुरुराज के,शिष्य मणिप्रभ राय ।
भैरव के सानिध्य में,ये चालीसा गाय ॥
॥ श्री भैरवाय शरणम् ॥
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