अयोध्या का युद्ध – अयोध्या का ऐतिहासिक संघर्ष हिस्ट्री इन हिन्दी Naeem Ahmad, July 19, 2020April 5, 2024 हमनें अपने पिछले लेख चंद्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस का युद्ध मे चंद्रगुप्त मौर्य की अनेक बातों का उल्लेख किया था। और यह बताया था कि उसने किस तरीके से देश के एक बड़े भाग पर अपना शासन कायम किया था और सेल्यूकस के आक्रमण करने पर उसने विजय प्राप्त की थी। शासक होने के बाद वह क सफल राजनीतिज्ञ साबित हुआ और बड़ी से बड़ी सेना को अपने अधिकार में रखकर उसने लगभग सम्पूर्ण भारत में अपनी सत्ता कायम कर ली थी। अपने इस लेख में हम अयोध्या का युद्ध के बारें में जानेगें। अयोध्या जी का युद्ध ईसा से 173 वर्ष पूर्व पुण्यमित्र और मेनेन्डर के बीच हुआ था। जिसमें बड़ी संख्या में मानव संहार हुआ था। अपने इस लेख में हम इसी ऐतिहासिक अयोध्या के युद्ध के बारें में विस्तार से जानेंगे। आइए सबसे पहले अयोध्या का युद्ध जब हुआ था उससे पहले की परिस्थितियों पर कुछ नजर डालते है, उसके बाद अयोध्या का युद्ध पर विस्तार से चर्चा करेगें।चंद्रगुप्त मौर्य के बाद मौर्य शासनचंद्रगुप्त मौर्य के बाद मौर्य शासन पर किसका अधिकार रहा? चंद्रगुप्त मौर्य के बाद मौर्य साम्राज्य की स्थिति क्या थी?चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उसका बेटा बिन्दुसारमौर्य साम्राज्य का शासक बना और करीब करीब पच्चीस वर्ष तक उसने बड़ी योग्यता के साथ शासन किया। चंद्रगुप्त की सफलता का बहुत कुछ कारण चतुर राजनीतिज्ञ चाणक्य था, और चंद्रगुप्त के बाद, बिन्दुसार के शासन काल में भी चाणक्य प्रधानमंत्री के पद पर रहा, यही कारण था कि चंद्रगुप्त के बाद मौर्य साम्राज्य में किसी प्रकार की कमजोरी पैदा नहीं हुई, बल्कि राज्य का विस्तार पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गया था और मौर्य साम्राज्य की सीमा देश के पूर्व पश्चिम की ओर समुद्र के किनारे तक पहुंच गयी थी।बीजापुर का युद्ध जयसिंह और आदिलशाह के मध्यबिन्दुसार के बाद उसका पुत्र अशोक, मौर्य साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। अशोक छोटी अवस्था में ही समझदार और दूरदर्शी मालूम होता था। इसलिए बिन्दुसार ने उसे अपने समय में ही उज्जैन और तक्षशिला के राज्य प्रबंध का भार सौंप दिया था। साम्राज्य का शासन भार प्राप्त करने पर अशोक के अन्तःकरण मे विश्व विजय की अभिलाषा बार बार उठने लगी। अभी तक कंलिंग लोग युद्ध में बहादुर थे। दोनों ओर से भीषण युद्ध हुआ। जो आज भी इतिहास में कंलिंग का युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में भयानक नर संहार हुआ था। इस भयानक नर संहार के बाद अशोक सम्राट ने विजय प्राप्त की और कलिंग का राज्य भी मौर्य साम्राज्य में शामिल कर लिया था।अशोक का दिग्विजय के बारें मेंसम्राट अशोक बौद्ध धर्म का समर्थक था, शूरवीर और पराक्रमी होने के बाद भी उसकी अंतरआत्मा में अहिंसा ने दृढता के साथ अधिकार कर लिया था। इसी अहिंसा के प्रभाव के कारण कलिंग राज्य को जितने के बाद अशोक को प्रसन्नता नहीं हुई। इस युद्ध में दोनों ओर से जो भयानक नर संहार हुआ था, उसने उसके ह्रदय को निर्बल बना दिया। उसके अन्तःकरण में एक ओर विश्व विजय की अभिलाषा थी और दूसरी ओर अहिंसा के प्रति आकर्षण था। दोनों भावनाओं का एक साथ और एक स्थान पर रहना असंभव था। वह दोनों की रक्षा करना चाहता था, इसलिए रक्तपात के द्वारा विश्व विजय करने की अपेक्षा उसने उस विजय को महत्व देने का निश्चय किया, जिसका संबंध धर्म के साथ था, और जिसके द्वारा अहिंसा की रक्षा होती थी। भारतीय सीमा के भीतर जो राज्य अभी तक अपराजित थे, उनको अशोक ने धार्मिक विजय के द्वारा पराजित करने की कोशिश की और भारत से बाहर मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, मिश्र, और उत्तरी अफ्रीका से लेकर यूनान तक उसने अपने धर्म विजय का झंडा फहराया। अशोक के शासनकाल में भारत ने बहुत बड़ी उन्नति की थी। छोटे छोटे राजाओं और नरेशों का अंत हो गया था। और मौर्य साम्राज्य का शक्तिशाली शासन चल रहा था। उस समय सम्पूर्ण संसार में यूनानी, भारतीय और चीनी शक्तियां प्रधान हो रही थी।मौर्य शासन का पतनमौर्य शासन का पतन कैसे हुआ? सम्राट अशोक के बाद मौर्य शासन का क्या हुआ? मौर्य साम्राज्य का आखरी शासक कौन था।भारत की छिन्न भिन्न शक्तियों को एकत्रित अशोक महान ने अपने शासन काल में भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने में पूरी सफलता प्राप्त की थी। यदि बौद्ध धर्म की शिक्षा दीक्षा ने उसे अहिंसा का उपदेश न दिया होता तो इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि इस समय भारत ने संसार के दूसरे देशों पर अपना आधिपत्य कायम किया होता, और उसका परिणाम यह होता कि इस देश पर विदेशी क्रूर जातियों ने आक्रमण करने, लूटने और सर्वनाश करने का साहस न किया होता। लेकिन बौद्ध धर्म के अहिंसा के उपदेशों ने भारत के राजाओं को ऐसा नहीं करने दिया। अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म को प्रधानता दी गई और उसके बाद भी यह प्रधानता देश में बराबर कायम रही। मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर राजा सम्प्रति के बैठते ही भारतीय राजनीति की परिस्थितियाँ और भी अधिक गम्भीर हो उठी। अशोक ने अपने शासनकाल में बौद्ध धर्म के प्रचार और विस्तार में अपनी समस्त शक्तियां अर्पण की थी, और राजा सम्प्रति ने जैन धर्म की प्रतिष्ठा और व्यवस्था में अपनी पूरी सामर्थ्य का प्रयोग किया। इन दोनों धर्मो ने देश में अहिंसा के सिवा और कुछ बाकी नहीं रखा। सम्प्रति के शासन के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन आरंभ हुआ, बौद्ध और जैन धर्म से प्रभावित देश के शासक कर्तव्य विमुख होने लगे, शासकों की अकमर्णयता देश में सर्वत्र भीषण अकर्मण्यता की कारण बन गई। ईसा से दो शताब्दी पूर्व से ही भारत की शक्तिशाली शासन व्यवस्था फिर छिन्न भिन्न होने लगी और मौर्य साम्राज्य के टुकड़े होने आरंभ हो गये।पुरंदर का युद्ध और पुरंदर की संधि कब और किसके बीच हुईमौर्य साम्राज्य के अंतिम राजा यहां तक निर्बल हो गये कि वे अपने राज्य की प्रजा पर भी ठीक ठीक शासन न कर सके। अहिंसा के प्रति बढ़ती हुई भावना ने अकर्मण्यता, निर्बलता और विलासिता पैदा कर दी। राज्य की प्रजा और सेना के जीवन का अनुशासन नष्ट हो गया। इस बढ़ती हुई अराजकता में प्रजा के विद्रोहात्मक व्यवहार बढ़ते गये और मौर्य साम्राज्य के अंतिम राजा वृहद्रथ को ईसा से 185 वर्ष पूर्व मार कर उसके सेनापति पुण्यमित्र ने शासन की सत्ता अपने हाथो में ले ली। इस प्रकार महान अशोक की मृत्यु के बाद पचास वर्षों के भीतर ही मौर्य साम्राज्य नष्ट हो गया। मौर्य साम्राज्य का अंत राजा वृहद्रथ के शासन काल में हुआ था। वह अहिंसा का पक्षपाती था। इस अवस्था में वह लगातार विलासी हो गया विलासिता कायरता की जननी है। वह अपने महलों में रानियों के साथ अपना अधिक समय वयतीत करता था। शासन की व्यवस्था बहुत ढीली चल रही थी। राज्य के अधिकारी स्वयं लुटेरे और प्रबंध में अयोग्य होते जाते थे। राज्य के कर्मचारियों पर राजा का भय नष्ट हो गया था, बहुत कुछ अशांत हो गया था। अहिंसा के शीतल और घने बादल की छाया में शासन की व्यवस्था नष्ट हो रही थी और अनुशासन हीनता के साथ साथ राज्य में अराजकता बढ़ती जा रही थी।ड्रेमीट्रिअस का आक्रमणसिकंदर के मरने के बाद उसके सेनापति सेल्यूकस ने अपनी सत्ता स्थापित की थी और पश्चिमी एशिया से लेकर मध्य एशिया तक उसने अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। लेकिन उसके वंशजों में जो उसके शासन के अधिकारी बने थे वे सेल्यूकस की तरह वीर और राजनितज्ञ न थे, इसलिए सेल्यूकस का कायम किया हुआ विस्तृत राज्य धीरे धीरे निर्बल होने लगा और अशोक के शासनकाल में ही वह निर्बल होकर टूटने लगा था। ईसा से 248 वर्ष पहले ईरान ने उससे अलग होकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी। इसके बाद जिन छोटे छोटे राज्यों और पहाड़ी सरदारों को जीतकर सेल्यूकस ने अपने अधिकार में कर लिया था, वे एक एक करके स्वतंत्र होने लगे और सेल्यूकस के वंशज जो राज्य पर शासन कर रहे थे, उनको अपने अधिकार में न रख सके। इस समय तक बाख्ती का राज्य सेल्यूकस के साम्राज्य में शामिल था। उसके राजा ड्रेमीट्रिअस ने साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया और उसने अपने राज्य बाख्ती को सेल्यूकस के साम्राज्य से स्वतंत्र कर लिया।राणा सांगा और बाबर का युद्ध – खानवा का युद्धजिन दिनों मौर्य साम्राज्य निर्बलता की सीमा पर पहुंच गया था और प्रजा के विद्रोह साम्राज्य के प्रति बढ़ते जा रहे थे, ड्रेमीट्रिअस अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हो रहा था। अपने राज्य को स्वतंत्र करने के बाद उसने ईसा से 190 वर्ष पूर्व अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और उसे जीतकर वह पंजाब की ओर बढ़ा। ड्रेमीट्रिअस ने पश्चिमी पंजाब और सिंध को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था, लेकिन उसकी सत्ता अधिक समय तक न रह सकी। पहलव और दूसरी जातियों ने पश्चिम और उत्तर की तरफ से आकर बाख्ती पर हमला किया और उन्होंने भयानक युद्ध करके उस पर कब्जा कर लिया। वहां का राजा ड्रेमीट्रिअस अपने राज्य से भागकर पंजाब चला आया और यही पर वह रहने लगा। कुछ दिनों में उसकी मृत्यु हो गई और उसके मरते ही उसका भारतीय राज्य कई एक छोटी छोटी रियासतों में बंट गया।मेनेन्डर का आक्रमणड्रेमीट्रिअस ने भारत में आक्रमण करके जिन स्थानों पर अपनी सत्ता कायम कर ली थी, वे पहले सब मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थे। पश्चिम की ओर मौर्य साम्राज्य के जो राज्य थे, उनकी राजधानी मौर्य सम्राटों की ओर से तक्षशिला में थी। वहां पर यूनानी नरेश ड्रेमीट्रिअस का अधिकार हो जाने पर मौर्य सम्राट अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में रहकर शासन करते रहे उन दिनों में पाटलिपुत्र संसार का सबसे बड़ा नगर माना जाता था। उसका घेरा साढ़े इक्कीस मील था और उन दिनों में इतना बड़ा संसार में कोई दूसरा नगर न था। अयोध्या का युद्ध मौर्य सम्राट वृहद्रथ के मारे जाने पर समस्त मौर्य साम्राज्य में एक भयानक अशांति उत्पन्न हो गई थी। पाटलिपुत्र में भी विद्रोह उठ खड़ा हुआ। सेनापति पुण्यमित्र ने उस विद्रोह को दबाने की कोशिश की, लेकिन आसानी से उसको सफलता न मिली राज्य में जितने बौद्ध मंदिर और मठ थे, उनके अधिकारी बौद्धों ने प्रजा को भड़काने का काम किया। राज्य में उनकी भी संख्या कम न थी, जो बौद्ध धर्म और अहिंसा धर्म के कट्टर विरोधी थे। इसलिए राजधानी पाटलिपुत्र से लेकर समस्त मौर्य साम्राज्य में विद्रोह की आग भभक उठी। इस गृह युद्ध में भयानक रक्तपात हुआ और एक गिरोह ने दूसरे गिरोह का सर्वनाश करनें में कुछ कसर न छोड़ी। शासन का भय लोगों का जाता रहा। राज्य की ओर से कोई किसी का उस समय अधिकारी न रहा। सर्वत्र विद्रोह की आग जलने लगी, उस विद्रोह की भीषणता बढ़ जाने पर सेनापति पुण्यमित्र ने साहस और सावधानी से काम लिया। उसने विद्रोहियों को दबाने के लिए अपनी सेना के सैनिकों से काम लिया, और सेना के सख्ती करने पर विद्रोही अपने अपने स्थानों से भागने लगें। अशांति की आग जब बुझती हुयी दिखाई दी, उस समय राज्य की सेना ने उन लोगों के साथ क्रूरता के व्यवहार किये, जिन्होंने विद्रोह को भड़काने का काम किया था और इस अपराध के अपराधी बौद्ध धर्म के मठाधीश थे उनके मंदिरों, मठों और आश्रमों को खूब लूटा गया और भिक्षुक ढूंढ़ ढूंढ कर मारे गये।तिरला का युद्ध (1728) तिरला की लड़ाईड्रेमीट्रिअस के मर जाने के बाद उसका भारतीय राज्य चार छोटी छोटी रियासतों में बंट गया था, उनमें क रियासत शाकल थी। ये चारों रियासतें भारत में यूनानी राज्य के नाम से प्रसिद्ध थी। शाकल का यूनानी राजा मेनेन्डर शूरवीर और बहादुर था। उसने मौर्य साम्राज्य और पाटलिपुत्र के गृह युद्ध के जब समाचार सुने तो वह बहुत प्रसंन्न हुआ। उसने मौर्य साम्राज्य को जीतने और उस पर अधिकार करने का विचार किया। मेनेन्डर जितना वीर था, उतना ही वह अवसरवादी भी था। उसने अपनी एक सेना मथुरा में छोड़कर दूसरी बड़ी सेना के साथ वह आगे बढ़ा और गंगा को पार कर उसने साकेत को जो आजकल अयोध्या के नाम से प्रसिद्ध है जाकर घेर लिया।अयोध्या का युद्ध अयोध्या का युद्ध किस किस के बीच हुआ था? अयोध्या के युद्ध में किसकी विजय हुई थी?पाटलिपुत्र का विद्रोह अभी तक पूर्ण रूप से शांत नहीं हुआ था। इसलिए सेनापति पुण्यमित्र अभी तक वहीं पर था और अपनी पूरी शक्ति को लगाकर वह विद्रोहियों का दमन करने में लगा था। इन्हीं दिनों में मेनेन्डर ने अयोध्या पर आक्रमण किया। मौर्य साम्राज्य की ओर से अयोध्या और उसके आसपास के राज्य की रक्षा के लिए दस हजार मालव सेना अयोध्या में मौजूद थी इस मालव सेना को मेनेन्डर के आक्रमण की पहले से कोई खबर न थी। अयोध्या के आसपास दूर तक कोशल राज्य फैला हुआ था। मेनेन्डर ने अयोध्या को घेरकर अपनी सेना को कौशल राज्य में फैला दिया और वहाँ सर्वत्र यूनानी सेना के अत्याचारों से त्राहि त्राहि मच गयी। यूनानी सेना ने कौशल राज्य में भीषण अत्याचार किये। भयानक रूप से नरसंहार हुआ और समस्त कौशल राज्य मार काट लूट मार से उजाड़ हो गया। मेनेन्डर के ऐसा करने का अभिप्राय यह था कि जिससे अयोध्या में मालव सेना को बाहर से कोई सहायता न मिल सके।राजा मेनेन्डर ने अयोध्या में पहले से ही घेरा डाल दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि जिन दिनों में यूनानी सैनिक कौशल राज्य का विनाश कर रहे थे, मालव सैनिकों को बाहर का कोई समाचार न मिल सका। अयोध्या के आसपास के सम्पूर्ण स्थानों का सर्वनाश करके यूनानी सेना ने अयोध्या का युद्ध शुरू कर दिया। मालव सैनिकों के साथ युद्ध करते हुए यूनानी सेना को तीन दिन बीत गये। अयोध्या के भीतर प्रवेश करना उसके लिए असंभव हो गया। मेनेन्डर के साथ एक बड़ी एक बड़ी सेना थी और उसने अयोध्या को आसानी से विजय करने का अनुमान किया था। लेकिन उसका वह अनुमान कहा तक सही निकला इस बात को मेनेन्डर ही जान सका। मालव सैनिकों की संख्या शत्रु सेना को देखते हुए साधारण थी और इस युद्ध की पहले से उनको कोई सूचना न थी फिर भी उन वीर सैनिकों ने शत्रुओं के साथ जिस बहादुरी के साथ युद्ध किया उससे मेनेन्डर के साहस को एक बड़ा धक्का लगा। दोनों ओर से भयानक युद्ध चलता रहा। दोनों ओर के सैनिक युद्ध क्षेत्र में बलिदान होते रहे, लेकिन कोई भी पक्ष कमजोर पड़ता हुआ दिखाई न दे रहा था। मालव सरदार ने यह निश्चय कर लिया था कि जब तक हमारा एक भी सैनिक बाकी रहेगा हम यूनानी सेना को अयोध्या में अधिकार न करने देगें। युद्ध की इसी अवस्था में अनेक दिन बीत गये एक बडी संख्या में मालव सैनिक मारे गयेऔर घायल हुए, लेकिन उनके सामने घबराने का कोई कारण पैदा न हुआ।सारंगपुर का युद्ध (1724) मराठा और मालवा का प्रथम युद्धयुद्ध के कारण अयोध्या की दशा बिगड़ रही थी, यूनानी सैनिको के अत्याचारों और उनकी लूटमार से नगर की अवस्था धीरे धीरे सोचनीय हो उठी। मालव सैनिकों के पास खाने पीने की सामग्री की कमी हो गयी और उसके प्रबंध का कोई भी उपाय न हो सका। युद्ध के दिनों की संख्या एक महीने तक पहुंच गई। खानेपीने के आभाव में मालव सैनिक कमजोर पड़ने लगे। उनकी कमजोरी मेनेण्डर से छिपी न रही। उसने इस दूरव्यवस्था का लाभ उठाया और अंतिम दिनों में उसने पूरी शक्ति लगाकर भयानक युद्ध किया। उसका फल यह हुआ कि मालव सरदार की पराजय हुई और अयोध्या मे यूनानी सेना ने अपना अधिकार कर लिया। मालव सेना को पराजित करने के बाद मेनेण्डर ने अयोध्या में अपनी सत्ता कायम की और कई दिनों के विश्राम के बाद उसने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया और अपनी एक सेना जिसमें पचास हजार यूनानी सैनिक थे, पटना की ओर रवाना करके दूसरी सेना को जिसमें सैनिकों की संख्या अधिक थी, अपने साथ लिया और मिथिला राज्य पर आक्रमण करने के लिए उसकी राजधानी वैशाली की और चला गया।सेनापति पुण्यमित्र अभी तक पाटलिपुत्र में था। मौर्य सम्राट के मारे जाने पर वहां जो अशांति उत्पन्न हुई थी, वह बहुत अंशों मे शांत हो आयी थी। लेकिन उसके सामने कुछ और खतरे पैदा हो गये थे। जिन दिनों में यूनानी नरेश मेनेण्डर ने अयोध्या में आक्रमण किया, उसी मौके पर सेनापति पुण्यमित्र को पाटलिपुत्र में कलिंग राज्य की ओर से होने वाले आक्रमण का समाचार मिला। अशोक ने अपने शासनकाल में कलिंग राज्य को जीतकर मौर्य साम्राज्य में मिला लिया था, लेकिन अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य की शासन सत्ता निर्बल होने पर दूसरे अनेक राज्यों के साथ साथ कलिंग राज्य भी स्वतंत्र हो गया था। कलिंग का राजा खारवेल भी जैन मत का अनुयायी था, पाटलिपुत्र में बौद्ध मत के समर्थक मौर्य सम्राट वृहद्रथ के मारे जाने पर जो विद्रोह उत्पन्न हुआ, उसने वहां के बौद्ध मत के समर्थक लोगों का ही विनाश किया गया था। मार काट के साथ साथ वे लोग लूटे भी गये थे। बहुत दिनों से मौर्य साम्राज्य में दो विरोधी धार्मिक विचारों का संघर्ष चल रहा था। सम्राट के मारे जाने के बाद इस संघर्ष ने और भी जोर पकड़ा। कलिंग का राजा पहले ही मौर्य साम्राज्य का विरोधी था। वह अपने पूर्वजों का बदला लेना चाहता था। इसलिए वह किसी अच्छे अवसर की तलाश में था। मौर्य साम्राज्य मे और विशेषकर पाटलिपुत्र में पारस्परिक युद्ध का समाचार पाकर राजा कलिंग ने इसे अपने लिए एक अच्छा अवसर समझा और उसने बड़ी तेजी के साथ अपनी सेना को तैयार होने की आज्ञा दी। अपने साथ एक लाख सेना को लेकर वह रवाना हुआ। उसके साथ तीन हजार लडाकू हाथी सेना में थे। खारवेल ने मौर्य साम्राज्य में जाकर कई स्थानों पर अधिकार कर लिया और पाटलिपुत्र पर हमला करने के लिए उसने अपनी सेना के साथ नागार्जुन पर्वत के निकट मुकाम किया।1971 भारत पाकिस्तान युद्ध – 1971 भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण और परिणामसेनापति पुण्यमित्र के सामने भयानक परिस्थिति थी। अयोध्या में सर्वनाश करके मेनेण्डर ने अपना अधिकार कर लिया था और वहाँ पर मालव सैनिकों की पराजय हो चुकी थी। इधर कलिंग का राजा खारवेल एक विशाल सेना के साथ मौर्य साम्राज्य का विध्वंस करने के लिए पाटलिपुत्र की और आ रहा था। इस भीषण परिस्थिति में भी सेनापति ने साहस नहीं तोडा। अभी तक सम्राट वृहद्रथ का स्थान खाली था। प्रजा के विद्रोह के कारण सेनापति ने किसी को सम्राट नहीं बनाया था। उसने अपने विश्वासी सेना अध्यक्षों और सम्राज्य के चतुर मंत्रियों को बुलाकर गुप्त सभा की और सब के परामर्श से उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को मौर्य साम्राज्य का सम्राट घोषित किया।सेनापति पुण्ममित्र को मेनेण्डर की यूनानी सेना के साथ भी युद्ध करना था और खारवेल के आक्रमण से पाटलिपुत्र की रक्षा भी करनी थी। इसके लिए उसने एक विशाल सेना की तैयारी की। सेनापति पुण्यमित्र एक असाधारण योद्धा और चतुर सेनापति था। उसके अधिकार में मालव सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना थी जो युद्ध में भयानक मार करती थी। पुण्यमित्र ने पाटलिपुत्र की रक्षा का भार अग्निमित्र के बेटे वसुमित्र को सौंपा और उसके अधिकार में उसने एक बडी सेना पाटलिपुत्र में छोड़ दी। सम्राट अग्निमित्र के अधिकार में तीस हजार की शक्तिशाली सेना देकर मथुरा में अधिकार करने को उसने भेजा और अपने साथ सत्तर हजार वीर क्षत्रिय सैनिकों और सरदारों की सेना को लेकर वह स्वयं मेनेण्डर का सामना करने के लिए ईसा से 173 वर्ष पहले वैशाली की ओर रवाना हुआ।ट्रॉय का युद्ध कब हुआ था – ट्रॉय युद्ध के कारण और परिणाममेनेण्डर अपनी सेना के साथ वैशाली में मौजूद था और उसके यूनानी सैनिक वैशाली से लेकर आसपास के निकटवर्ती और दूरवर्ती स्थानों में जबर्दस्ती रसद इकट्ठा करने का काम कर रहे थे। जो लोग रसद देने में इंकार करते थे यूनानी सैनिक उनका कत्ल कर देते थे और उनके घरों को लूट लेते थे। यूनानी सेना के इन अत्याचारों से वहां पर लोगों का सभी प्रकार का विनाश हो रहा था। लेकिन प्रजा के पास इन जुल्मों से बचने के लिए कुछ उपाय न थे। इन्हीं दिनों सेनापति पुण्यमित्र अपनी विशाल सेना लेकर वैशाली पहुंच गया और नगर के बाहर एक स्थान पर डेरा डालकर उसने यूनानी सैनिकों पर आक्रमण करने का आदेश दिया। यूनानी नरेश मेनेण्डर को सेनापति पुण्यमित्र के आने का कोई समाचार पहले से ना था। इसलिए उसको युद्ध के लिए तैयार होने का अवसर न मिला। सेनापति की मालव सेना चारों तरफ फैल गई और मिलने वाले यूनानी सैनिकों का उन्होंने कत्ल करना आरंभ कर दिया। वैशाली और उसके आसपास के स्थानों में तीन दिनों तक मालव सैनिकों का यह कत्लेआम बराबर जारी रहा। इस नरसंहार में मेनेण्डर के सैनिक बहुत बडी संख्या मे मारे गये और जो बच गये वे अपने अपने प्राण बचाकर वहां से भागने लगे। वैशाली से मेनेण्डर के भाग जाने पर सेनापति ने अपनी मालव सेना के साथ वहां पर विश्राम किया और इसके बाद वह अपनी विजयी सेना को लेकर अयोध्या की ओर रवाना हुआ। मेनेण्डर ने अयोध्या को विजयी कर उसकी रक्षा के लिए एक यूनानी सेना छोड़ दी थी और वह वैशाली की ओर चला गया था। मालव सेना ने अयोध्या पहुंच कर उसको तीन ओर से घेर लिया और वहां पर जो यूनानी सेना रक्षा के लिए मौजूद थी उस पर आक्रमण कर दिया। इसी अवसर पर मेनेण्डर अपनी सेना के साथ अयोध्या में आ गया और उसने मालव सेना के विरुद्ध भयानक युद्ध आरंभ कर दिया। अयोध्या में यूनानी सेना पहले से मौजूद थी और दूसरी विशाल सेना मेनेण्डर के साथ आ जाने से अयोध्या का युद्ध क्षेत्र में यूनानियों की ताकत जोरदार हो गई। लेकिन सेनापति पुण्यमित्र ने जिस साहस और पराक्रम से यूनानी सेना पर आक्रमण किया, उससे मालूम होता था कि जिस समय वह पाटलिपुत्र में मौजूद था और वहां से उसके न आ सकने की हालत में यूनानी सेना ने जो अयोध्या का सर्वनाश करके अपना अधिकार कायम किया था, इस समय सेनापति उसका बदला लेना चाहता था।सेनापति पुण्यमित्र को अपने बहादुर मालव सैनिकों पर विश्वास था। अपने साथियों और सरदारों की विरता पर गर्व होने के कारण ही वह विशाल यूनानी सेना की परवाह न कर रहा था। दोनों ओर की घमासान लड़ाई मे मारे गये सैनिकों के रक्त से अयोध्या की पुण्य नगरी रक्तमय हो उठी, और युद्ध क्षेत्र में पानी की तरह रक्त बहने लगा। आरंभ में मालवा सैनिक बड़ी देर तक यूनानी सेना को पराजित करते हुए आगे बढ़ते गये, लेकिन उसके बाद एक साथ यूनानी सेना का जोर बढ़ा और मालव सेना ने पीछे हटना शुरू कर दिया। इस समय युद्ध की अवस्था पलटी हुई दिखाई पड़ी और यह साफ मालूम होने लगा कि यूनानी सेना के मुकाबले में मालव सेना की पराजय में अब अधिक देर नहीं है। मालव सेना लगातार पीछे हटती गई और यूनानी सेना उसे बहुत दूर तक खदेड़ कर ले गई। इसके बाद युद्ध की स्थिति फिर बदली और मालव सेना ने जमकर युद्ध किया। इस समय उनके भालों की मार से थोडे समय में ही बहुत से यवन सैनिक मारे गए और वो पीछे हटने लगे। इसी समय सेनापति के मालव सैनिकों ने यूनानी सेना को घेर लिया और भीषण नरसंहार शुरू कर दिया। यूनानी सेना का साहस टूट गया और वह युद्ध क्षेत्र से छावनी की ओर भागने लगी। मालव सेना ने उसका पीछा किया और एक साथ यूनानी सेना की छावनी पर टूट पड़ी। छावनी में मेनेण्डर घायल होकर अपने दो हजार सवारों और 28 हजार पैदल सेना के साथ भागा और वह मथुरा की और रवाना हुआ। मालव सेना ने यूनानी सेना की छावनी पर अधिकार कर लिया और उसकी रसद और बहुत सी युद्ध सामग्री अपने अधिकार में ले ली। इसके बाद मालव सेना ने यूनानी सेना का पीछा किया। मेनेण्डर की सेना जैसे ही मथुरा पहुंची, अग्निमित्र ने अपनी फौज लेकर उस पर आक्रमण किया। यूनानी सेना ने अग्निमित्र की सेना का सामना किया और दोनों ओर से युद्ध आरंभ हो गया।इसके कुछ ही समय बाद पुण्यमित्र अपनी विजयी सेना के साथ मथुरा में आ पहुंचा और विशाल सेना के साथ वह यूनानी सेना पर टूट पडा। इस समय यूनानी सेना बड़े खतरे मे पड़ गई। उसने दोनों सेनाओं का मुकाबला करते हुए भागने की कोशिश की। यूनानी सेना पर एक ओर से अग्निमित्र की सेना वार कर रही थी और दूसरी ओर से पुण्यमित्र की सेना उसका सर्वनाश करने मे लगी थी।रोमन ब्रिटेन युद्ध का युद्ध कब हुआ – रोम ब्रिटेन युद्ध के कारण और परिणामयूनानी सेना के पैर उखड़ गए युद्ध क्षेत्र से प्राण बचाकर भागने के सिवा उसके सामने ओर कोई उपाय न था। इसी दुविधा में यूनानी सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए। अपनी बची हुई सेना को लेकर मेनेण्डर अपने राज्य शाकल की ओर भागा। अग्निमित्र ने अपनी सेना को लेकर उसका पीछा किया और शाकल के निकट जाकर यूनानी सेना पर फिर आक्रमण किया। शाकल में जमकर दोनों ओर से फिर युद्ध हुआ। पराजित सेना का एक बार जब साहस टूट जाता है तो फिर उसका युद्ध में रूकना कठिन हो जाता है। मेनेण्डर की सेना लडते लडते बहुत थक गई थी। और बार बार की पराजय से उसका उत्साह और साहस खत्म हो चुका था। अंत में यूनानी सेना के साथ मेनेण्डर शाकल से भी भागा और उसने सिंध की तरफ जाने का रास्ता पकड़ लिया। इस भगदड़ में अग्निमित्र की सेना ने यूनानी सेना का पीछा किया और भारतीय सीमा के बाहर उसको भगाकर उसने विश्राम किया। अग्निमित्र को जब विश्वास हो गया कि यूनानी सेना भारत की सीमा से दूर निकल गई और अब उसके इस तरफ लौटने की कोई आशा नहीं है तो उसने अपनी सेना वहां पर छोड़ दी और वह मथुरा में लौटकर आ गया। यहां पर सेनापति पुण्यमित्र अपनी सेना के साथ मौजूद था। उसने अपने पिता सेनापति पुण्यमित्र से के साथ युद्ध के संबंध में बहुत सी बातें की। मेनेण्डर को पराजित करके मालव सेना ने उसके अधिकार किये हुए स्थानों पर अपना कब्जा कर लिया।अब सेनापति पुण्यमित्र और अग्निमित्र के सामने पाटलिपुत्र का प्रश्न था। जिस मौके पर पुण्यमित्र ने मेनेण्डर की सेना पर आक्रमण किया था। कलिंग के राजा खारवेल ने अपनी सेना को लेकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया। वसुमित्र ने पाटलिपुत्र के बाहर ही उसका मुकाबला किया और खारवेल की सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया। दोनों ओर की सेनाओं के बीच कई दिनों तक बराबर युद्ध होता रहा। वसुमित्र के अधिकार में उस समय जितनी सेना थी, उसको देखते हुए खारवेल की सेना बहुत बड़ी थी और उसके साथ तीन हजार युद्ध के लड़ाकू हाथी थे, वे और भी अधिक युद्ध क्षेत्र में चिंताजनक हो रहे थे। लेकिन युवक वसुमित्र ने इन बातों की परवाह न की उसका साहस किसी प्रकार कमजोर न पड़ा। अपने सरदारों और सैनिकों के साथ उसने निश्चय कर लिया था कि प्राणों के रहते हुए हम लोग किसी प्रकार कलिंग सेना को आगे बढ़ने न देगें। वसुमित्र के इस निर्णय पर वीर मालव सैनिक युद्ध में बड़ी बहादुरी के साथ युद्ध करते रहे।गुलाब युद्ध कब हुआ था – गुलाब युद्ध के कारण और परिणाममेनेण्डर को पराजित करने के बाद पुण्यमित्र ने अयोध्या की रक्षा का भार एक मालव सेना के साथ अग्निमित्र को सौंपा और स्वयं अपनी सेना के साथ वह पाटलिपुत्र की ओर रवाना हुआ। पाटलिपुत्र में होने वाले युद्ध से वह अपरिचित न था, लेकिन मेनेण्डर के साथ होने वाले युद्ध को छोड़कर किसी प्रकार वह पाटलिपुत्र आना नहीं चाहता था। पुण्यमित्र के पाटलिपुत्र पहुंचते ही खारवेल के साथ होने वाले युद्ध की परिस्थिति बदल गई। युद्ध करते करते वसुमित्र और उसकी सेना थक गई थी। खारवेल के हाथियों की मार से उसके बहुत से सैनिक मारे भी गये थे। इन सभी हालतों में वसुमित्र की सेना एक बड़ी कमजोरी के साथ युद्ध क्षेत्र में मौजूद थीं। सेनापति पुण्यमित्र और उसकी सेना के आ जाने पर वसुमित्र का साहस और उत्साह बढ़ गया। पाटलिपुत्र के जिस युद्ध को खारवेल बहुत थोड़े समय के भीतर खत्म करना चाहता था, उसकी जिंदगी अब फिर से बढ़ गई, यह बात खारवेल और उसके सैनिकों से भी छीपी न रही।खारवेल ने जिस अवसर का लाभ उठा कर पाटलिपुत्र पर अधिकार करने की बात सोची थी, उसकी परिस्थितियों में इस समय बहुत परिवर्तन हो गया। पाटलिपुत्र का गृह युद्ध भी शांत हो गया था और पुण्यमित्र यवन नरेश को पराजित करके पाटलिपुत्र लौट आया था। इन दिनों में उसकी सेना का उत्साह बढ़ा हुआ था। पाटलिपुत्र में पहुंच कर उसने खारवेल की सेना के साथ भयानक युद्ध आरंभ किया। उसके पक्ष में इस समय सैनिकों की कमी न थी और पुण्यमित्र स्वयं एक राजनीतिज्ञ चतुर और दूरदर्शी सेनापति था। कई दिनों तक दोनों ओर से पाटलिपुत्र के बाहर युद्ध होता रहा इस युद्ध में मालव सेना की पराजय का कोई प्रश्न ही न था। हार जीत दोनों ओर से असंदिग्ध अवस्था में थी, इसी दशा में संधि का प्रस्ताव उठा और उसके लिए दोनों ओर से मंजूरी हो गयीं। ऐसा मालूम हो रहा था कि संधि की आवश्यकता दोनों ओर अनुभव की जा रही थी। युद्ध बंद हो गया खारवेल की सेना पीछे हट गई और पाटलिपुत्र की सेना भी युद्ध क्षेत्र से वापस चली गयी दोनों ओर के प्रतिनिधियो का सम्मेलन हुआ और बिना किसी उलझन के उपस्थित की गई संधि की शर्तें स्वीकृत हो गई। उसके बाद खारवेल अपनी सेना के साथ अपने राज्य की ओर लौट गया। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—-[post_grid id=”7736″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket 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